Monday, December 21, 2009

पर्यावरण-सिर पर खड़ा संकट

सूखाग्रस्त बुन्देलखंड क्षेत्र की स्थिति को देखकर भी अगर अभी से सचेत नहीं हुआ गया तो पूरे प्रदेश को बुन्देलखंड बनते देर नहीं लगेगी। पर्यावरण को नजरअंदाज करने का दुष्प्रभाव अब दिखना शुरू हो गया है। जल जीवन का दूसरा नाम है। अगर जल संकट की भीषणता को नहीं समझा गया तो गंभीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। जल संचयन के प्रति हमारी उदासीनता भविष्य में हमें भारी पड़ सकती है। जल की तेजी से कमी होती जा रही है।
जल प्रदूषण अधिनियम 1974 व पर्यावरण रक्षण अधिनियम 1986 के वायु, ध्वनि, जैव प्रदूषणों से मुक्ति के लिए बनाये गये हैं। इन नियमों का पालन सख्ती से न कराए जाने का परिणाम है कि संकट सिर पर आ खड़ा हुआ है। अगर अब भी पर्यावरण के प्रति सचेत नहीं हुआ गया तो खुद अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने की कहावत को हम चरित्रार्थ कर देंगे।
बुन्देलखण्ड क्षेत्र और बड़े शहरों में भूगर्भ जल का स्तर हर साल पांच से सात फीट नीचे गिर जाता है जबकि गर्मी के मौसम में यह स्थिति और खराब हो जाती है। भूगर्भ जल का उपयोग ङ्क्षसचाई और पीने में किया जाता है लेकिन कृषि के लिए अधिक दोहन से इसके पेयजल के रूप में इस्तेमाल की संभावनायें कम पड़ जाती हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अधिकांश क्षेत्रों में कुएं, तालाब तथा प्राकृतिक झीलें सूख गई हैं और जलस्तर नीचे गिर जाने के कारण हैंडपम्पों ने काम करना बंद कर दिया है। इस विषय स्थिति से सामना करना सरल नहीं है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के आगरा, मुजफ्फरनगर, बिजनौर, गाजियाबाद, मुरादाबाद, हाथरस और मेरठ में भूगर्भ जल की स्थिति ङ्क्षचतनीय है। मध्य उत्तर प्रदेश के फतेहपुर, रायबरेली, सुलतानपुर, जौनपुर, प्रतापगढ, कानपुर, उन्नाव, झांसी, जालौन और लखीमपुर खीरी जिलों में भी स्थिति अच्छी नहीं है। यही स्थिति पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी है जहां भूगर्भ जल का स्तर काफी नीचे गिर गया है। केन्द्रीय भूगर्भ जल विभाग और राज्य भूगर्भ जल विभाग के एक संयुक्त सर्वेक्षण में पाया गया कि 13 जिलों के 22 विकासखण्डों में भूगर्भ जल की स्थिति ङ्क्षचताजनक है जबकि 29 जिलों के 75 विकासखण्डों में यह स्थिति इतनी गंभीर नहीं है।
भूजल की तरह की नदियों के जल की स्थिति भी विषय हो चुकी है। लोगों को तारने वाली गंगा का अस्तित्व संकट में है। धाॢमक नगरी काशी में पानी का बहाव कम होने एवं प्रदूषण के चलते गंगा की स्थिति काफी खराब हो गयी है। दूसरों को मोक्ष दिलाने वाली गंगा अब स्वयं मोक्ष को तरस रही है। अब तो वाराणसी में गंगा में जहां तहां बालू के टीले दिखायी देने लगे हैं। कई पक्के घाटों को गंगा छोड चुकी है। केवल मिट्टी का टीला नजर आ रहा है। रामनगर से राजघाट के बींच बालू खनन पर रोक लगने के कारण रेत का मैदान बढता जा रहा है और गंगा सिमटती जा रही है। स्थिति यह है कि काशी के विश्व प्रसिद्ध घाटों पर पानी कम होने से स्नानार्थी घुटने भर या उससे भी कम एवं प्रदूषणयुक्त पानी में डुबकी लगाने को बाध्य हैं। गंगा में व्याप्त प्रदूषण का तो यह हाल है कि स्थानीय लोगों ने गंगा स्नान करना लगभग छोड़ ही दिया है। काशी के घाटों पर बैठने वाले पंडो को डर है कि कहीं गंगा का भी वही हाल न हो जो यमुना व गोमती तथा अन्य नदियों का हुआ है। इलाहाबाद में तो गंगा इन दिनों नदी की जगह नाले के रूप में नजर आती है। वहां पर गंगा एवं यमुना का जलस्तर 10 प्रतिशत के हिसाब से हर साल गिरता जा रहा है। पापनाशिनी गंगा अब कानपुर एवं इलाहाबाद में गंदे नाले के रूप में परिवॢतत हो दीनहीन बन गयी है। यही हाल रहा तो आने वाले वर्षों में गंगा मृत नदी बन जायेगी। आगरा तथा दिल्ली में यमुना लखनऊ में गोमती वाराणसी एवं इलाहाबाद में वरूणा और जौनपुर में सई एवं पीली नदियों का क्या हश्र हुआ है यह किसी से छिपा नहीं है।
प्रतिवर्ष लाखों विदेशी पर्यटक अन्य स्थानों को देखने के साथ ही साथ वाराणसी मे गंगा के सुप्रसिद्ध घाटों को देखने आते हैं। दुनिया में किसी भी नदी के किनारे इतने सुन्दर घाट देखने को नहीं मिलते। देश को इससे अरबों रूपये की विदेशी मुद्रा अॢजत होती है। इन घाटों का अस्तित्व गंगा के अस्तित्व से जुड़ा है। बिना गंगा के इन घाटों का कोई अर्थ ही नहीं रह जायेगा। कानपुर, इलाहाबाद एवं वाराणसी में नालों का गंदा पानी बेरोकटोक गंगा में गिर रहा है। वाराणसी में प्रदूषण के चलते गंगा का पानी काला पड गया है। नदी केपानी का बहाव कम होने से गंगा का फैलाव दिनों दिन घटता जा रहा है। बहाव न होने से प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। जब तक टिहरी बांध से पर्याप्त पानी नहीं छोडा जायेगा गंगा का न तो जलस्तर बढेगा और न ही बहाव। आने वाले समय में अगर पर्याप्त वर्षा न हुई तो दोनो पवित्र नदियों गंगा एवं यमुना का अस्तित्व खतरे में पड जायेगा। दोनों नदियों का जलस्तर १० प्रतिशत के हिसाब से प्रतिवर्ष घट रहा है। करीब दो दशक पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी द्वारा गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के लिये गंगा एक्सन प्लान शुरू किया गया था। इस पर सरकार ने 50 करोड़ से ज्यादा रूपये खर्च किये थें लेकिन गंगा के जल में सुधार होने के बजाय स्थिति बद से बदतर हुई है।
जल के मुख्य स्रोतों की ओर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया गया तो एक दिन हम एक-एक बंदू के लिए तरस जाएंगे। मोटे तौर पर देखा जाए तो भारत के अधिकतर क्षेत्रों में वर्ष के 8760 घंटों में से मात्र 100 घंटे ही वर्षा होती है। इन दस घंटों में भी पर्याप्त रूप से मूसलाधर वर्षा नहीं होती है। कभी-कभी आधी वर्षा मात्र 20 घंटों में ही होती है। जबकि यूरोप के देशों में वर्ष भर वर्षा होती रहती है। इन परिस्थितियों के कारण जल संग्रहण और संरक्षण यूरोप के देशों की अपेक्षा भारत जैसे देशों में ज्यादा जरूरी है। विडम्बना यह है कि भारत में इस ओर कोई जागरूकता नहीं है। माना जाता है कि जल संग्रहण और संरक्षण की उचित व्यवस्था न होने के कारण जल बहुत सी मिट्टी बहाकर निकट की नदी की ओर वेग से दौड़ता है और नदी में बाढ़ आने की संभावना भी रहती है। ऐसे में अधिकतर जल न एकत्र होगा न धरती में रिसेगा, अत: कुछ समय बाद जल संकट उत्पन्न होना भी स्वाभविक है। वृक्षों के महत्व को संग्रहण व संरक्षण के लिए अनिवार्य माना गया है। वृक्ष वर्षा के पहले वेग को अपने ऊपर सहकर उसे धरती पर धीरे से उतारते हैं। इससे वर्षा जल मिट्टïी को काटने के स्थान पर तक स्वयं मिट्टïी में ही समा जाता।
वर्षा जल को संचित करने के लिए कई योजनाएं तो बनायी गयी हैं लेकिन उसके क्रियावन्यन की ओर गंभीरता से प्रयास नहीं किए गये हैं। शहरों में बरसात के पानी को संचित करने के लिए मकान या इमारतों की छतों पर व्यवस्था की जानी चाहिए। इसके लिए समय-समय पर नियम भी बनाये गये लेकिन उन पर गंभीरता से अमल कभी नहीं कराया गया। वर्षा के फलस्वरूप जो पानी नदी की ओर बह रहा है उसके अधिकतम हिस्से को तालाबों या पोखरों में एकत्र किया जा सकता है। ऐसे पानी को मोड़कर सीधे खेतों में भी लाया जा सकता है। विशेषज्ञों का कहना है कि खेतों में पडऩे वाली वर्षा का अधिकतर जल खेतों में ही रहे, इसकी व्यवस्था भू संरक्षण के विभिन्न उपायों जैसे मेड़़बंदी, पहाड़ों में सीढ़ीदार खेती आदि से की जा सकती है। तालाबों में एकत्र पानी को अधिक समय तक बनाये रखने के लिए यहां आसपास वृक्षारोपण किया जा सकता है। ऐसे तालाब को डिजाइन किया जा सकता है जिससे वाष्पीकरण कम हो। एक तालाब का अतिरिक्त पानी स्वयं दूसरे में पहुंच सके और इस तरह तालाबों की एक सिरीज बन जाए, ऐसा भी प्रबंधन से संभव है। अब इस ओर गंभीरता से प्रयास करने की जरूरत है। लखनऊ सहित प्रदेश के पांच महानगरों कानपुर, वाराणसी, आगरा और इलाहाबाद की पेयजल व्यवस्था दुरुस्त करने के लिए राज्य सरकार के प्रस्ताव पर केन्द्रीय योजना आयोग ने 160 करोड़ रुपये स्वीकृत किए हैं। गोमती को प्रदूषण से बचाने के लिए वर्तमान में 423 करोड़ की परियोजना तैयार की गयी है। उत्तर प्रदेश गिरता भूगर्भ जल का स्तर भी चिन्ता का विषय है। इस जल के अत्यधिक दोहन को रोकने के लिए तत्काल प्रभावी कदम उठाये जाने चाहिए। राजधानी लखनऊ में भूगर्भ जल का स्तर 35 मीटर तक नीचे गिर चुका है और यह 20 से 50 से.मी. प्रति वर्ष नीचे गिर रहा है।
राज्य के पश्चिमी हिस्सों में तो भूगर्भ जल की स्थिति और भी खराब है, जहां 70 प्रतिशत तक भूगर्भ जल का दोहन किया जा चुका है तथा पानी के परतों के भारी इस्तेमाल तथा अन्य तरीकों से जल दोहन के चलते पेयजल के लिए जल स्रोतों की संभावना बहुत कम रह गयी है।