चिन्तन
रंगमंच की चुनौतियां
विश्व रंगमंच दिवस 27 मार्च चुनौतियों को समझने का दिन है। आज भी हम भारतीय रंगमंच को उस स्थिति तक नहीं पहुंचा सकें है कि उत्साहित हुआ जाये। भारतीय रंगमंच की स्थिति किसी से छुपी नहीं है। अपने देश में अपना रंगमंच अपने लिए दर्शकों की भीड़ जुटा पाने में कामयाब नहीं हो रहा है। हिन्दी हिन्दुस्तान के उद्घोष के बीच देश में सबसे अधिक दयनीय दशा में हिन्दी रंगमंच ही है। हिन्दी रंगमंच के सामने दर्शकों का संकट है तो मौलिक और नये नाटकों की कमी भी है। ऐसे नहीं है कि हमारे यहां रंगमंच के संस्कार न हो लेकिन इन संस्कारों का विकास हम नहीं पा रहे हैं। रंगमंच पर नवीन प्रयोगों की आवश्यकता आज अनिवार्य रूप से महसूस की जा रही है।
भारतीय रंगमंच का इतिहास भरत मुनि से शुरू होता है। नाट्यशास्त्र की सम्पन्न परम्परा हमारे यहां है। इसके बाद भी रंगमंच का वर्तमान परिवेश ज्यादा उत्साहित करने वाला नहीं है। लाख संघर्ष करने केबाद भी आज का रंगमंच कई चुनौतियों से जूझ रहा है। खेद का विषय तो यह है कि आज की पीढ़ी में हम रंग संस्कार विकसित ही नहीं कर पाये हैं। शुरूआत से बच्चों को नाटकों से जोडऩे का प्रयास नहीं होता है। थियेटर एजुकेशन को प्राइमरी एजुकेशन में शामिल ही नहीं किया गया है। कांवेट स्कूलों में जरूर फैशन के रूप में थियेटर की ओर कुछ समय दिया जाता है। कुछ नाट्य संस्थों ने बच्चों के लिए ग्रीष्मकालीन कार्यशालाओं का आयोजन कर उनको रंगकर्म से जोडऩे का प्रयास जरूर शुरू किया है लेकिन इस छोटे से प्रयास से आज के बाल वर्ग में रंग संस्कार को विकसित नहीं किया जा सकता है। वास्तव में रंग संस्कार मात्र नाटकों से जोडऩे के लिए नहीं है। जीवन में अनुशासित होने की कला को भी इस माध्यम से सीखा जा सकता है। जीवन में अनुशासन के लिए जिन आयामों की जरूरत होती है, थियेटर में उनको सीखाया जाता है। ये गुण व्यक्तित्व विकास में भी सहायक होते हैं। इसके बाद भी थियेटर की उपेक्षा की जाती है। एजुकेशन थियेटर की चर्चा तो जोर-शोर से हुई लेकिन इस ओर काम कम ही हुआ। थियेटर की ओर गंभीरता से विचार करने का प्रयास आज भी नहीं किया जा रहा है।
थियेटर के प्रति इस उदासीनता का परिणाम है कि आज उसके सामने दर्शकों का अकाल होने लगा है। शौकिया रंगमंच ने किसी तरह से इस विधा के अस्तित्व को सुरक्षित रख रखा है। कुछ संस्थाओं ने रंगमंच को सम्पन्न करने का अथक प्रयास जरूर किया है पर उनका प्रयास ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। हिन्दी रंगमंच की बात करें तो बंगला और मराठी रंगमंच ने इसे पीछे कर दिया है। यह स्थिति उस समय है जबकि देश में सबसे अधिक हिन्दी भाषी रहते हैं। हिन्दभाषियों की फौज का लाभ हिन्दी रंगमंच को क्यों नहीं मिल पा रहा है, यह विचारनीय प्रश्न है। बॉलीवुड में हिन्दी की फिल्में तो खूब बन रही हैं और वह हर भाषा क्षेत्र में पसन्द भी की जा रही हैं। विडम्बना यह है कि हिन्दी बेल्ट में भी हिन्दी का नाटक उन्नति नहीं कर पा रहा है। दरअसल ग्लैमर के दौर में हिन्दी रंगमंच ने प्रयोगों को नक्कार रखा है। उसके प्रयोग होते हैं तो सीमित दायरे में। तकनीकी से जुडऩा हिन्दी रंगमंच ने आज भी नहीं सीखा है। हिन्दी रंगमंच पर नये नाटकों की कमी का रोना भी मचा हुआ है। उस विधा की ओर ध्यान कौन देगा, जहां पहचान का संकट व्याप्त है। रंगमंच को दरअसल फिल्म तथा धारावाहिक की दुनिया में पहुंचने का शार्टकट मान लिया गया है। एक कारण से युवा वर्ग का झुकाव रंगमंच की ओर हुआ जरूर है लेकिन कुछ समय में वे यहां उबने लगते हैं। उनको पता है कि रंगमंच उनकी मंजिल नहीं पड़ाव है। ऐसा पड़ाव जिस पर ज्यादा देर तक रूकना उनको मंजूर नहीं है। रंगमंच को वे सीढ़ी की तरह प्रयोग कर आगे बढ़ जाते हैं। उनके सामने मजबूरी यह है कि शुद्ध रूप से रंगमंच का कलाकार बन पर जीवित नहीं रहा जा सकता है। रंगमंच रोजी-रोटी का साधन अभी तक नहीं बन पाया है।
रंगमंच को जब एक स्वतंत्र विधा के रूप में मान्यता प्राप्त है तो उसके विस्तार और विकास की संभावनाओं को नजरअंदाज क्यों कर दिया जाता है? क्यों टिकट शो की अवधारणा को एक ओर रख दिया जाता है? आरोप होता है कि टिकट लगाने पर दर्शक नाटक देखने के लिए आते नहीं है। अगर दर्शकों को टिकट के पैसे देने से परहेज होता तो वे सिनेमाहॉल में पैसे खर्च कर टिकट न खरीदते। अरे भाई! दर्शक टिकट भी खरीदेगा। पहले अपने शोको इस लायक तो बनाओ। बंगला और मराठी के शो हाउसफुल किस कारण से होते हैं, इस पर शोध कर अपनी कमियों को दूर करना चाहिए।
सिर्फ नाटक करने का नाटक नहीें करना चाहिए। रंगकर्म को अपना कर्म बनाये बिना सफलता नहीं मिलने वाली है। रंगकर्म की दुनिया से अभिनेता, नाटककार, निर्देशक, तकनीशियन, मेकअप मैन सहित कई पाश्र्व कलाकार जुड़े होते हैं। इन सभी के हितों की पूर्ति थियेटर द्वारा हो तभी वे इस विधा को समय देकर गंभीरता से इस ओर विचार कर सकें। क्या कारण है कि पुराने नाटक को ही रंगमंच पर दोहराया जा रहा है? नये नाटक रंगमंच को क्यों नहीं मिल पाये हैं? नवीनता के नाम पर फ्रांसीसी, हंगेरियन तथा इटेलियन नाटकों को अनुवादित किया जा रहा है। दर्शकों को अगर नये विषयों पर नाटक देखने को मिलें तो भी रंगमंच की रौनक लौट सकती है। रंगमंच की तरह रंग समीक्षा भी उपेक्षा का शिकार हो चुकी है। रंग समीक्षा को कम महत्व दिया जाने लगा है। उसके लिए स्थान सीमित कर दिया गया है।
ऐसा नहीं है कि सरकारी स्तर पर रंगमंच की ओर सोचने का काम नहीं किया जा रहा है। विडम्बना तो यह है कि यह सारे प्रयास कोरे साबित हो रहे हैं। प्रदेश सरकार ने भारतेन्दु नाटक अकादमी के नाम पर सफेद हाथी पाल रखा है। संगीत नाटक अकादमी के लिए भी ऐसा कुछ कहा जा सकता है। इन दो अकादमियों के बाद भी थियेटर के विकास की नयी परिभाषा नहीं गढ़ी जा सकी है। अकादमी सिर्फ परम्परा को समेटने के प्रयास में लगी हुई है। कुछ नया देने की उम्मीद इनसे पूरी नहीं हो पा रही है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि संचार क्रांति ने किसी का नुकसान किया हो या ना किया हो लेकिन रंगमंच को जरूर खतरे में डाल दिया है। टेलीविजन की बाढ़ ने रंगमंच के दर्शकों को इस विधा से और भी दूर कर दिया है। घर में टी.वी. के सामने बैठे दर्शकों को प्रेक्षागृह कम रास आने लगा है। प्रेक्षागृह उनके आकर्षण का केन्द्र तब बनता है जबकि यहां स्टार कलाकारों का जमावड़ा हो। फिल्मी सितारों की रंगमंच पर दखल भीड़ जरूर बटोरती है। उस भीड़ को थियेटर का दर्शक मानना बेमानी होगी। दरअसल वह वीआईपी लोगों का उत्सव होता है। रंगमंच पर फिल्मी स्टार को देखने आये वीआईपी अगर टिकट खरीद कर आये तो कुछ भला हो सकता है। उनको तो वीआईपी पास पर आमंत्रित किया जाता है। हां, ये जरूर है कि स्टार कलाकारों से जुडऩे से थियेटर का ग्लैमर जरूर बढ़ता है। सच तो यह है कि थियेटर की सीढ़ी चढ़-चढ़ कर ही वे स्टार बनें हैं। जब रंगमंच स्टार बनाता है तो खुद क्यों नहीं बन सकता। विश्व रंगमंच दिवस पर इस पर विचार करना जरूरी है।
रजनीश राज
प्रतिभा पलायन की चुनौतियां
ग्लोबल विलेज की संकल्पना ने देश की प्रतिभाओं को विदेश की आसान राह भी दिखायी है। सुविधा और सम्पन्नता के सहज हो जाने के कारण आज के समय में देश से बाहर जाकर पढ़ाई और नौकरी करना आम बात हो चुकी है। अंतर्राष्ट्रीय मार्केट में भारतीय मेधाओं की मांग का बढऩा शुभ संकेत है लेकिन इसके साथ अपने देश के सामने एक गंभीर चुनौती भी है। देश की प्रतिभाओं के विदेश पलायन से भविष्य में गंभीर संकट खड़े हो सकते हैं। सही है कि देश में प्रतिभाओं की कोई कमी नहीं है, पर बूंद-बूंद निकालने पर सागर भी खाली हो सकता है। सवाल यह है कि ऐसी क्या परिस्थितियां या मजबूरी है कि देश का छात्र बाहर जाकर पढ़ाई कर रहा है? किस कारण से देश का युवा विदेश की ओर नौकरी के लिए आकर्षित हो रहा है?
एक नहीं सैकड़ों ऐसे उदाहरण होंगे जिन्होंने भारत से बाहर जाकर अपनी प्रतिभा से पूरी दुनिया में नाम कमाया होगा। गंभीर विषय है कि भारत की प्रतिभाएं तेजी से विदेश की ओर रूख कर रही हैं। विदेश से मोह के कई कारण हैं। दौलत, शौहरत और तमाम सुविधाओं के प्रलोभन में देश छोडऩे का निर्णय लेने में आज देर नहीं लगती है। एक झटके में देश बेगाना लगता है। स्वर्ग मानी जाने वाली जन्मभूमि से मोहभंग होने के कारणों को दूर करना भारत के विकास के लिए अनिवार्यजरूरी है। देश में उन सभी सुविधाओं को उपलब्ध कराना जरूरी हो गया है जिस कारण से यहां का युवा विदेश की ओर मुख मोड़ रहा है। न सिर्फ शिक्षा बल्कि पढ़ाई के अवसर भी उनको सुलभ कराना होगा ताकि उनका विदेश प्रेम भंग हो सकें।
प्रतिभा पलायन का एक बड़ा कारण है आज के छात्र-छात्राओं का विदेश प्रेम। युवावस्था की दहलीज पर कदम रखते ही वे विदेश के सपनें देखने लगते हैं। फिल्मों में देखे गया विदेश उनके कण-कण में रच-बस जाता है। इस कारण से 4-5 साल की पढ़ाई पूरी करने के बाद उनको उच्च शिक्षा के लिए विदेश का रास्ता ही समझ में आता है। वहां शिक्षा के साथ ही नौकरी का सपना उनके दिल में रचा-बसा होता है। देश में कुछ हजार रुपए की नौकरी से अच्छा विकल्प युवा विदेश में डॉलरों की नौकरी का समझते हैं। देश की वर्तमान व्यवस्था या विसंगति प्रतिभा पलायन का मूल कारण है। इस विसंगति में सुधार के बिना देश के बेहतर भविष्य की कामना को साकार नहीं किया जा सकता है।
देश में व्याप्त भष्टïाचार व नौकरशाही से त्रस्त प्रतिभावान जब अपनी प्रतिभा के अनुसार नौकरी या अच्छा अवसर नहीे पाते तो मजबूरन वे देश से बाहर मौका तलाशते हैं। प्रतिभा के इस प्रकार पलायन क्षरण देश के लिए अति चिंता का विषय है। देश में मौजूद बौद्धिक संपदा व प्रतिभावान युवाओं को रोकने व उनके समुचित विकास के लिए सरकार को ठोस रणनीति के साथ कारगर कदम उठाने पर विचार करना चाहिए।
सिर्फ भारत नहीं दूसरे विकासशील देशों के लिए प्रतिभा पलायन एक गंभीर समस्या है। किसी भी देश की बौद्धिक क्षमता के पलायन की कीमत राष्टï्र को ही चुकानी पड़ती है। विकासशील से विकसित देश होने के क्रम में प्रतिभा पलायन से बाधा भी कम नहीं है।
जानकार आश्चर्य हो सकता है लेकिन सच यह है कि विदेश जाने वालों में सेविभिन्न सर्वेक्षणों से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार लगभग 7000 कुशल भारतीय प्रतिवर्ष विदेशों में जाकर बसते हैं। जिसमें से लगभग 90 प्रतिशत का रूख अमरीका की ओर रहता है। शायद यही कारण है कि अमरीका में 35 प्रतिशत उच्च पदस्थ में भारतीय मूल के वैज्ञानिक, चिकित्सक, इंजीनियर व कम्प्यूटर विशेषज्ञ हैं। अमरीका की सिलकन वैली के अलावा राष्टï्रीय अतंरिक्ष अनुसंधान केन्द्र नासा में लगभग 40 फीसद भारतीय अपनी प्रतिभा का सिक्का जमा चुके हैं।
अगर परिस्थितियों में सुधार नहीं किया गया तो भारत सरकार के निजी सर्वेक्षण ग्रुप 'सेन्टर फार प्लानिंग रिसर्च एण्ड एक्शनÓ के अध्ययन के अनुसार अब तक 200 अरब रूपये से ऊपर की प्रतिभा पूंजी के रूप में विदेश जा चुकी हैं। इस समय लगभग पांच लाख से अधिक कुशल भारतीय पाश्यात्य देशों में काम कर रहे हैं। प्रतिभा पलायन की यही रफ्तार अगर बनी रही तो भारत की स्थिति काफी घातक हो सकती है। अतिश्योक्ति नहीं हो कि भारत दोयम दर्जे वाले विशेषज्ञों का देश बनकर रह जायेगा। देश में जन्मी प्रतिभाओं को देश में रोकने के लिए कोई स्पष्टï नीति तैयार करना जरूरी है। देश में कुकुरमुत्तों की तरह कई ऐसी संस्थाएं उग आयी हैं जो आसान शर्तों पर विदेश में पढ़ाई के लक्ष्य की पूर्ति करवाती हैं। बैंकों ने शिक्षा ऋण भी सहज और सुलभ कर दिया है। ऐसे में
भारत सरकार के विज्ञान तथा टेक्नोलाजी विभाग के आदेश पर काम करने वाली एक संस्था सीएफजीआरए ने कुछ वर्ष पहले आंकड़ों के आधार पर यह चेतावनी दी थी कि प्रतिभा के इस पलायन को रोकने के लिये सरकार को कारगर व ठोस नियम कानून बनाने चाहिए। और यह चेतावनी दी थी कि इस प्रवृत्ति को रोकना होगा क्योंकि जिन लोगों को कुशल बनाने में भारत का धन लगा है उन्हें अपने फायदे के लिये बाहर जाकर काम करने का नैतिक अधिकार नहीं है।
प्रतिभा पलायन रोकने के लिए जरूरी है कि अपने देश में ही सभी के लिए शिक्षा तथा रोजगार के अवसर सुलभ कराये जाए। बिना किसी भेदभाव के लिए सभी के लिए आगे बढऩे की संभावना विकसित की जाए। कई संस्थानों में भारत सरकार लाखों रूपये छात्रों की पढ़ाई व उनकी क्षमता को विकसित करने में खर्च करती है । लेकिन विडम्बना यह है कि पढ़ाई पूरा करने के बाद भी युवाओं का मोहभ्रंग विदेश में नौकरी से नहीं होता है।
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प्रतिभा पलायन के विषय पर कुछ लोगों का मानना है कि यह एक स्वाभाविक अवस्था है जो ज्यादा समय तक नहीं रहती और कुछ वशेषज्ञों का कहना है कि समयान्तराल पर जब उन्हें वे सारी सुविधायें यहां उपलब्ध होने लगेंगी वे स्वत: विदेश का मोह छोड़ देंगे।
प्रतिभा पलायन के लिए सरकारी नीति के साथ ही युवा वर्ग को सचेत करना होगा। उनको बताना होगा कि क्या वापस अपने मूल देश में लौट आते हंै। राष्टï्र के विकास में गति प्रदान करने के लिए यह जरूरी हो गया है कि देश से हो रही प्रतिभा के पलायन को रोका जाए। भारत विकासशील व गरीब देश है, इस देश में एक डाक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक व कुशल प्रबंधक तैयार करने में जो पैसा सरकार खर्च करती है उसका उपयोग देश के हित के लिए ही होना चाहिए। इस देश को कुशल लोगों की आवश्यकता है जो राष्टï्रहित की भावना से अपने अर्जित ज्ञान को इसी देश में रहकर इसको विकसित देश की श्रेणी में खड़ा करने में अपना योगदान दें। विज्ञान, चिकित्सा, प्रबंधन, सूचना प्रौद्योगिकी आदि क्षेत्रों से जुड़ी उत्तम संस्थाओं के छात्र प्रतिवर्ष अपना अध्ययन जैसे ही पूरा करते हैं विभिन्न अन्तराष्टï्रीय कम्पनियों द्वारा ऊंची रकम पर उनको नौकरी का ऑफर दिया जाता है। अक्सर यह ऑफर स्वीकार भी कर लिया जाता है। लेकिन या जीवन में पैसा ही सब कुछ है। पैसे के लालच में क्या अपने देश से गद्दारी की जा सकती है।
भारत का विश्व में अलग गौरवमयी स्थान है। अमत्र्यसेन, डा. शान्ति स्वरूप भटनागर, डा. होमी जहांगीर भाभा, चन्द्रशेखर, मेघनाथ साहा, विक्रम सेठ, जयंतनार्लिकर, डा. हरगोविन्द खुराना जैसे कई भारतीय हैं जिन्होनें राष्टï्र को गौरवान्वित किया और पूरे विश्व को नयी दिशा दी। युवाओं को उनको आदर्श मानना चाहिए। सिर्फ रूपयों या अपने निजी स्वार्थ के कारण देश का तिरस्कार करने का भाव नहीं होना चाहिए।
रजनीश राज
प्रतिभा पलायन की चुनौतियां
ग्लोबल विलेज की संकल्पना ने देश की प्रतिभाओं को विदेश की आसान राह भी दिखायी है। सुविधा और सम्पन्नता के सहज हो जाने के कारण आज के समय में देश से बाहर जाकर पढ़ाई और नौकरी करना आम बात हो चुकी है। अंतर्राष्ट्रीय मार्केट में भारतीय मेधाओं की मांग का बढऩा शुभ संकेत है लेकिन इसके साथ अपने देश के सामने एक गंभीर चुनौती भी है। देश की प्रतिभाओं के विदेश पलायन से भविष्य में गंभीर संकट खड़े हो सकते हैं। सही है कि देश में प्रतिभाओं की कोई कमी नहीं है, पर बूंद-बूंद निकालने पर सागर भी खाली हो सकता है। सवाल यह है कि ऐसी क्या परिस्थितियां या मजबूरी है कि देश का छात्र बाहर जाकर पढ़ाई कर रहा है? किस कारण से देश का युवा विदेश की ओर नौकरी के लिए आकर्षित हो रहा है?
एक नहीं सैकड़ों ऐसे उदाहरण होंगे जिन्होंने भारत से बाहर जाकर अपनी प्रतिभा से पूरी दुनिया में नाम कमाया होगा। गंभीर विषय है कि भारत की प्रतिभाएं तेजी से विदेश की ओर रूख कर रही हैं। विदेश से मोह के कई कारण हैं। दौलत, शौहरत और तमाम सुविधाओं के प्रलोभन में देश छोडऩे का निर्णय लेने में आज देर नहीं लगती है। एक झटके में देश बेगाना लगता है। स्वर्ग मानी जाने वाली जन्मभूमि से मोहभंग होने के कारणों को दूर करना भारत के विकास के लिए अनिवार्यजरूरी है। देश में उन सभी सुविधाओं को उपलब्ध कराना जरूरी हो गया है जिस कारण से यहां का युवा विदेश की ओर मुख मोड़ रहा है। न सिर्फ शिक्षा बल्कि पढ़ाई के अवसर भी उनको सुलभ कराना होगा ताकि उनका विदेश प्रेम भंग हो सकें।
प्रतिभा पलायन का एक बड़ा कारण है आज के छात्र-छात्राओं का विदेश प्रेम। युवावस्था की दहलीज पर कदम रखते ही वे विदेश के सपनें देखने लगते हैं। फिल्मों में देखे गया विदेश उनके कण-कण में रच-बस जाता है। इस कारण से 4-5 साल की पढ़ाई पूरी करने के बाद उनको उच्च शिक्षा के लिए विदेश का रास्ता ही समझ में आता है। वहां शिक्षा के साथ ही नौकरी का सपना उनके दिल में रचा-बसा होता है। देश में कुछ हजार रुपए की नौकरी से अच्छा विकल्प युवा विदेश में डॉलरों की नौकरी का समझते हैं। देश की वर्तमान व्यवस्था या विसंगति प्रतिभा पलायन का मूल कारण है। इस विसंगति में सुधार के बिना देश के बेहतर भविष्य की कामना को साकार नहीं किया जा सकता है।
देश में व्याप्त भष्टïाचार व नौकरशाही से त्रस्त प्रतिभावान जब अपनी प्रतिभा के अनुसार नौकरी या अच्छा अवसर नहीे पाते तो मजबूरन वे देश से बाहर मौका तलाशते हैं। प्रतिभा के इस प्रकार पलायन क्षरण देश के लिए अति चिंता का विषय है। देश में मौजूद बौद्धिक संपदा व प्रतिभावान युवाओं को रोकने व उनके समुचित विकास के लिए सरकार को ठोस रणनीति के साथ कारगर कदम उठाने पर विचार करना चाहिए।
सिर्फ भारत नहीं दूसरे विकासशील देशों के लिए प्रतिभा पलायन एक गंभीर समस्या है। किसी भी देश की बौद्धिक क्षमता के पलायन की कीमत राष्टï्र को ही चुकानी पड़ती है। विकासशील से विकसित देश होने के क्रम में प्रतिभा पलायन से बाधा भी कम नहीं है।
जानकार आश्चर्य हो सकता है लेकिन सच यह है कि विदेश जाने वालों में सेविभिन्न सर्वेक्षणों से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार लगभग 7000 कुशल भारतीय प्रतिवर्ष विदेशों में जाकर बसते हैं। जिसमें से लगभग 90 प्रतिशत का रूख अमरीका की ओर रहता है। शायद यही कारण है कि अमरीका में 35 प्रतिशत उच्च पदस्थ में भारतीय मूल के वैज्ञानिक, चिकित्सक, इंजीनियर व कम्प्यूटर विशेषज्ञ हैं। अमरीका की सिलकन वैली के अलावा राष्टï्रीय अतंरिक्ष अनुसंधान केन्द्र नासा में लगभग 40 फीसद भारतीय अपनी प्रतिभा का सिक्का जमा चुके हैं।
अगर परिस्थितियों में सुधार नहीं किया गया तो भारत सरकार के निजी सर्वेक्षण ग्रुप 'सेन्टर फार प्लानिंग रिसर्च एण्ड एक्शनÓ के अध्ययन के अनुसार अब तक 200 अरब रूपये से ऊपर की प्रतिभा पूंजी के रूप में विदेश जा चुकी हैं। इस समय लगभग पांच लाख से अधिक कुशल भारतीय पाश्यात्य देशों में काम कर रहे हैं। प्रतिभा पलायन की यही रफ्तार अगर बनी रही तो भारत की स्थिति काफी घातक हो सकती है। अतिश्योक्ति नहीं हो कि भारत दोयम दर्जे वाले विशेषज्ञों का देश बनकर रह जायेगा। देश में जन्मी प्रतिभाओं को देश में रोकने के लिए कोई स्पष्टï नीति तैयार करना जरूरी है। देश में कुकुरमुत्तों की तरह कई ऐसी संस्थाएं उग आयी हैं जो आसान शर्तों पर विदेश में पढ़ाई के लक्ष्य की पूर्ति करवाती हैं। बैंकों ने शिक्षा ऋण भी सहज और सुलभ कर दिया है। ऐसे में
भारत सरकार के विज्ञान तथा टेक्नोलाजी विभाग के आदेश पर काम करने वाली एक संस्था सीएफजीआरए ने कुछ वर्ष पहले आंकड़ों के आधार पर यह चेतावनी दी थी कि प्रतिभा के इस पलायन को रोकने के लिये सरकार को कारगर व ठोस नियम कानून बनाने चाहिए। और यह चेतावनी दी थी कि इस प्रवृत्ति को रोकना होगा क्योंकि जिन लोगों को कुशल बनाने में भारत का धन लगा है उन्हें अपने फायदे के लिये बाहर जाकर काम करने का नैतिक अधिकार नहीं है।
प्रतिभा पलायन रोकने के लिए जरूरी है कि अपने देश में ही सभी के लिए शिक्षा तथा रोजगार के अवसर सुलभ कराये जाए। बिना किसी भेदभाव के लिए सभी के लिए आगे बढऩे की संभावना विकसित की जाए। कई संस्थानों में भारत सरकार लाखों रूपये छात्रों की पढ़ाई व उनकी क्षमता को विकसित करने में खर्च करती है । लेकिन विडम्बना यह है कि पढ़ाई पूरा करने के बाद भी युवाओं का मोहभ्रंग विदेश में नौकरी से नहीं होता है।
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प्रतिभा पलायन के विषय पर कुछ लोगों का मानना है कि यह एक स्वाभाविक अवस्था है जो ज्यादा समय तक नहीं रहती और कुछ वशेषज्ञों का कहना है कि समयान्तराल पर जब उन्हें वे सारी सुविधायें यहां उपलब्ध होने लगेंगी वे स्वत: विदेश का मोह छोड़ देंगे।
प्रतिभा पलायन के लिए सरकारी नीति के साथ ही युवा वर्ग को सचेत करना होगा। उनको बताना होगा कि क्या वापस अपने मूल देश में लौट आते हंै। राष्टï्र के विकास में गति प्रदान करने के लिए यह जरूरी हो गया है कि देश से हो रही प्रतिभा के पलायन को रोका जाए। भारत विकासशील व गरीब देश है, इस देश में एक डाक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक व कुशल प्रबंधक तैयार करने में जो पैसा सरकार खर्च करती है उसका उपयोग देश के हित के लिए ही होना चाहिए। इस देश को कुशल लोगों की आवश्यकता है जो राष्टï्रहित की भावना से अपने अर्जित ज्ञान को इसी देश में रहकर इसको विकसित देश की श्रेणी में खड़ा करने में अपना योगदान दें। विज्ञान, चिकित्सा, प्रबंधन, सूचना प्रौद्योगिकी आदि क्षेत्रों से जुड़ी उत्तम संस्थाओं के छात्र प्रतिवर्ष अपना अध्ययन जैसे ही पूरा करते हैं विभिन्न अन्तराष्टï्रीय कम्पनियों द्वारा ऊंची रकम पर उनको नौकरी का ऑफर दिया जाता है। अक्सर यह ऑफर स्वीकार भी कर लिया जाता है। लेकिन या जीवन में पैसा ही सब कुछ है। पैसे के लालच में क्या अपने देश से गद्दारी की जा सकती है।
भारत का विश्व में अलग गौरवमयी स्थान है। अमत्र्यसेन, डा. शान्ति स्वरूप भटनागर, डा. होमी जहांगीर भाभा, चन्द्रशेखर, मेघनाथ साहा, विक्रम सेठ, जयंतनार्लिकर, डा. हरगोविन्द खुराना जैसे कई भारतीय हैं जिन्होनें राष्टï्र को गौरवान्वित किया और पूरे विश्व को नयी दिशा दी। युवाओं को उनको आदर्श मानना चाहिए। सिर्फ रूपयों या अपने निजी स्वार्थ के कारण देश का तिरस्कार करने का भाव नहीं होना चाहिए।
रजनीश राज
Monday, December 21, 2009
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